ठंड की रात
कड़कती ठंड की रात थी,
हल्की हल्की बरसात थी।
हाथ में छतरी,ओढ़कर शाल
ओ आई थी।
ओ होंठ, ओ आंखें,ओ जुल्फें,
ओ जो मुस्कुराई थी।
जीवन के ओ पल भूल न पाऊं,
करूं तो क्या करूं।
ओ हो गई पराई,
मन मान लिया मेरी,
अब करूं तो क्या करूं।
जब से हुई जुदाई,
रात तन्हा तन्हा मेरी,
दिल में ओ रहती है,
पर आसमां से दूरी।
कैसे उसे पाऊं,
अब करूं तो क्या करूं।
मनाता हूं मन को
मानता नहीं,
देता हूं हवाला रस्मों
रिवाज़ का।
सुनता नहीं।
दिखाता हूं भय परिवार
समाज का।
फर्क पड़ता नहीं।
बगावत को है ऊतारु,
अब करुं तो क्या करूं।
- जुगेश चंद्र दास