कविता : जगा रहूं.... - डॉ.एम.डी.सिंह
मेरे जख्मों पर मरहम नहीं
नमक छिड़क 
कि चीखता रहूं
दर्द से बिलबिलाता रहूं 
कि कहीं सो न जाऊं 
जगा रहूं

जगा रहूं 
कि वर्तमान मुझे मरा न समझ ले 
कि इतिहास कहीं कायर ना लिख दे 

मेरी छाती में वरछियां घोप 
आँखों में उंगलियां डाल
जला दे दिमाग को अलाव की तरह 
कि मेरे सीने में सहानुभूति न रहे 
कि मेरी आंखों में दया न बचे 
कि मेरे मस्तिष्क में प्रतिशोध की ज्वाला 
बर्फ की तरह ठंडी न पड़े

और मैं 
तुझे काल के मुंह में जाते देख 
अट्टहास करने के लिए 
जगा रहूं।

••••••••••••••••डॉ एम डी सिंह
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