ये तो सोचे समझे गुनाह हैं....

'हादसे कभी कभी होते हैं ...ये तो सोचे समझे गुनाह हैं...


कभी निर्भया... कभी प्रियंका रेड्डी..?


और न जाने कितनी   अनाम...


मगर ये अंदेशा भी रखना...
'तुम्हें'
तय करना होगा....
कि 'तुम्हें 'पशु होना है या इन्सान!!
क्यों कभी सडक़ पर हों,या घर मे
भीड़ हो या,अकेले मे...
बस हो या टैक्सी..
पहचाने हो' तुम' ,या अजनबी!
'तुमसे ',बचना होता है मुझे
जैसे कोई हिंसक ,भूखा या पागल पशु
छूट आया हो कहीं से.......
क्यों भरोसे मे ....थोड़ा भरम..
रखना होता है मुझे,
.....भाई..पिता...चाचा... या.
...पुत्रवत ...हो कोई !
भीतर शुबहे का एक कोना
रखना होता है मुझे !
                     अब...तय करना होगा 'तुम्हें'!
             कि यहां इस धरती पर, जिंदा रहेगी इंसानियत!
             या कि खत्म होजाए हमारी नस्ल!!
             
 तंग आगई है औरत......
 पलक झपकते ही बदल जाती हैं, 'तुम्हारी' नजरें 
' तुम्हारी 'बातें,     'तुम्हारे 'इशारे,
 बदल देते हो 'तुम 'रिश्तों के नाम भी,
 और चुका देते हो ..हर शह का दाम भी!
 कि अब भरोसा लफ्ज़ 
 अपने मायने खो चुका  है,
 कि जमाना अपने बदलने का ,
 खामियाजा भर चुका है....
 ....अब और हद न करना!
 कि ये अंदेशा भी रखना...
 कहीं ऐसा न हो ....कि...
 छोड़ दें बेटियां जन्म लेना
 कि धरती औरतों से खाली न हो जाए...
 कि अगले जनम मे 'तुम 'तन्हा ही रहना!!                    
                                          - श्रीमती अमृता उशारिया


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